आरभ
ना ख़ुशी हैं, ना गम हैं, कुछ तो हैं, पर कुछ भी नहीं हैं !
हासिल हैं पर, पर कुछ खोने का डर हैं,
शिताम हैं, पर प्यार भी हैं
कवायत भी हैं, पर पाने की चाह नहीं हैं,
जिसकी जरुरत हैं वो पास भी नहीं हैं,
ना शिकायत हैं किसी से, ना कोई गिला हैं!
परे हैं जो हर बात सी, वो खुदा भी नहीं हैं!
आशो की नदी हैं, तमानो का समंदर है मुझमें!
अनन्त हैं छितिज, पर किनारा नहीं हैं!
कहा मिले किससे मिले, क्या कहे और क्या सुनाये,
वही कहानी हैं पर कोई हम जबानी नहीं!
लड़ के निकल जाऊ ये जुरट हैं सही,
अपने ही आप हैं, कोई और नहीं,
आखिर मैं भी सोचता हूँ कभी,
मैं ही अकले नहीं इस भरवार में, जो खाता हूँ गोंते,
पर वही चाह हैं किनारे से मिलने की,
क्यों मैं ही हूँ पर मैं कुछ नहीं!
ये वो हैं जिसकी चाह अभी हैं मुझे,
पर ये मेरा आरभ हैं अंत नहीं!